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नवजात शिशु की विविध दशाएँ
परिचय
शारीरिक दशा
शरीरिक अनुपात
अंगों की क्रियाएँ / चेष्टाएं
निद्रा
परिचय
जन्म के समय के भार का 6-7% वजन प्रथम 7 दिनों में घट जाता है परंतु 10वें दिन तक अधिकांश, शिशु अपना पूर्व वजन प्राप्त कर लेते हैं। किस तरह शिशु के रोने से फेफड़ों में हवा भर जाती है और शिशु श्वसन क्रिया आरंभ देता है। समान्यता शिशु 16 से 18 घंटे तक सोता है
शारीरिक दशा
नवजात शिशु का वजन प्राय: 5.5 – 9.5 पौंड (2.5-4.3 किग्रा.) एवं लम्बाई 19-22 इंच (48 – 56 से. मी.) की होती है। उसका पूरा शरीर वर्निक्स केसोसा (एक ग्रीसी पदार्थ जो गर्भ काल में विकसित होता है) से ढका होता है जो सिजेरियन ढंग से जन्में शिशुओं में अधिक होता है जबकि सामान्य ढंग से जन्मे प्रक्रिया के अंतर्गत दबाव के कारण, यह पदार्थ शरीर से अलग हो जाता है। नवजात शिशु की पेशियाँ मुलायम परंतु अनियंत्रित होती है उसकी त्वचा एवं चेहरे पर मुलायम रोम पाये जाते हैं जो एक माह के अंदर गिर जाते है प्रदर्शन प्रक्रिया के कारण शिशु का सिर लंबा एवं बेडौल दिखता है, क्योंकि कार्टिलेज से जुड़ी खोपड़ी की हड्डियाँ जन्म कैनाल में दबने के कारण टेढ़ी हो जाती है। शिशु (लड़के-लड़कियों) के सीने एवं जननेद्रिय का भाग लंबा/उभरा होता है। ऐसा माँ में उत्पन्न हारमोंस का प्लेसेंटा को पार कर गर्भस्थ शिशु तक पहुँचने के कारण होता है। सब मिलाकर, नवजात शिशु का आकार – प्रकार विचित्र होता है। किसी – किसी शिशु में जन्म के समय ही एक – दो दांत पाये जाते हैं जो बाद में गिर जाते हैं।
जन्म के समय के भार का 6-7% वजन प्रथम 7 दिनों में घट जाता है परंतु 10वें दिन तक अधिकांश, शिशु अपना पूर्व वजन प्राप्त कर लेते हैं। भारी शिशुओं की तुलना में हल्के शिशुओं का भार कम घटता है। अपने घटे भार का कुछ अंश वे जल्द ही प्राप्त कर लेते हैं मौसम एवं अन्य कारकों का प्रभाव भी वजन के घटने – बढ़ने पर पड़ता है
शरीरिक अनुपात
नवजात शिशु का शरीरिक (अंगिय) अनुपात प्रौढ़ की तुलना में भिन्न होता है। शिशु के सिर का आकार पूरे शरीर का ¼ होता है, जबकि प्रौढ़ का सिर पूरे शरीर का 1/10 हिस्सा होता है। आँख के ऊपर का भाग बड़ा होता है जबकि ठोढ़ी का हिस्सा अत्यंत छोटा, गर्दन अत्यंत छोटी परंतु आँखें परिपक्व होती हैं। पेशियों की दुर्बलता के कारण आँखे कोटरों में अनियमित रूप से घूमती हैं। कंधे सकरे, उदर बड़ा और आगे की ओर निकला होता है। बांह और पैर अनुपातत: छोटे तथा हथेली लघु होते हैं।
अंगों की क्रियाएँ / चेष्टाएं
रोने से शिशु के फेफड़ों में हवा भर जाती है। इसके साथ ही उसके श्वसन क्रिया आरंभ हो जाती है। भूख लगने पर उसकी चूसने की चेष्टायें प्रारंभ हो जाती हैं। पहले तो दूध पीने की गति अनियमित एवं मंद होती है, परंतु जन्म के दो तीन सप्ताह बाद उसकी भूख नियमित हो जाती है। अत: उसे सयम – सारिणी के अनुसार दूध इत्यादि देना चाहिए। मलोत्सर्जन की क्रिया जन्म के कुछ घंटे बाद शुरू होती है, जब नवजात दूध पीकर चुप हो जाता है। शिशु का हृदय स्पंदन जन्म के समय 130-150 तक होता है, जो कुछ दिनों बाद घटकर 118 प्रति मिनट हो जाता है। श्वसन क्रिया प्रति मिनट 40-45 बार होती है जबकि प्रौढ़ों में मात्र 18 बार होता है। स्वस्थ शिशु का शारीरिक तापमान शीघ्रता से परिवर्तित होता रहता है। आमाशय 4-5 घंटे में खाली हो जाता है। छोटी अंते 7-8 घंटे एवं बड़ी आंते 12-14 घंटो में खाली हो जाती हैं। भूख के समय अमाशय आंकूचन, प्रौढ़ों की अपेक्षा अधिक समृद्ध होता है।
निद्रा
चूंकि नवजात शिशु का, निद्रा से संबंधित व्यवहार संगठित एवं संरूपित होता है, अत: निद्रा की स्थिति के आधार पर केन्द्रीय स्नायु संस्थान संबंधित असामान्यताओं की पहचान संभव है। वे नवजात शिशु जिन्हें जन्म संताप का अनुभव होता है उनमें निद्रा चक्र अनियमित पाया जाता है
निद्रा के अंतर्गत दो प्रमुख दशाएं पायी जाती हैं; अनियमित निद्रा इस स्थिति में शरीर के अंग एवं मस्तिष्क सक्रिय हो जाते हैं, जागृतावस्था की भांति इस अवस्था में भी, विद्युत- मस्तिष्क – तरंगी क्रियाएँ घटित होती हैं। आँख की भौहें, हृदय गति, रक्त चाप एवं श्वसन अनियमित होते हैं एवं धीमी शारीरिक गति दर्शाते हैं। इसके विपरीत नियमित निद्रा की स्थिति में शरीर शांत होता है एवं हृदय गति, श्वसन, मस्तिष्क तरंगी क्रियायें धीमी एवं नियमित होती हैं (डिट्रिचोव एवं अन्य, 1982)। बच्चों की भांति वयस्कों में भी अनियमित निद्रा एवं नियमित निद्रा की दशाएँ पायी जाती हैं। परन्तु आयु वृद्धि के साथ शुरू में 50% एवं अंतत: 3-5% में परिवर्तन पाया जाता है।
नवजात शिशु का निद्रा चक्र अनियमित निद्रा से आरंभ होता है जबकि बड़े बच्चों या वयस्कों में आरंभ के 70-100 मिनट तक एन.आर.ई.एम. की दशा होती है
शिशु में अनियमित निद्रा की दशा बड़े बच्चों एवं वयस्कों में अधिक पायी जाती है। इसकी व्याख्या आटोस्तिमूलेटेड सिद्धांत के आधार पर किया जाता है (राफवर्ग एवं अन्य, 1966)। चूंकि बड़े बच्चों एवं वयस्कों में आर.ई.एम्. की दशा एवं स्वप्न की स्थिति में सहसंबंध पाया जाता है परन्तु शिशुओं में बड़े बच्चों की भांति स्वप्न नहीं आते एवं शिशुओं को अनियमित, नियमित निद्रा के लिए पर्याप्त उद्दीपन की आवश्यकता होती है, क्योंकि उनकी सक्रिय दशा बहूत कम समय की होती है। अनुसंधानों से प्रमाणित है की केन्द्रीय स्नायु संस्थान के विकास के लिए उद्दीपन महत्त्वपूर्ण होता है। इस विचार की पुष्टि इससे भी होती है कि जब शिशुओं को जगने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तो आर.ई.एम्. में कमी आती है परंतु
शिशु का 80% समय सोने अथवा ऊंघने में बीतता है । यह कालान्तर में घटता हुआ एक वर्ष की आयु में 49% रह जाता है जो आंतरिक उद्दीपनों यथा: भूख, पीड़ा बेचैनी एवं बाह्य कारक जैस- तीव्र कोलाहल एवं तापमान आदि के कारण होता है नवजात शिशु की पहले घंटे की नींद गहरी होती है. परंतु बाद की नींद हल्की होती है जो आसानी से टूट जाती है (प्रैट, 1954)।
दूध पीने के बड निंद्रा की मध्यवर्ती अवस्था आती है। उस समय शिशु के शरीर में कंपन एवं अनियमित गतियाँ दिखाई देती हैं। 5 से 20 मिनट तक गहरी निंद्रा के बाद, पुन: मध्यवर्ती अवस्था आ जाती है। इसके बाद शिशु पूर्णत: जागृत अवस्था में आ जाता है। गहरी नींद की दशा में शिशु को जगाना कठिन होता है। पेट के बल सोये शिशु की अवस्था गर्भस्थ शिशु की भांति होती है परंतु एक माह के अंत तक यह स्थिति पेशीय तंत्र में संकुचन के कारण समाप्त हो जाती है और नवजात मनींद की अवस्था तथा जागृत अवस्था में भी होने वाली शारीरिक गतियों में क्रमश: वृद्धि होने लगती है।
इस प्रकार दिन- रात मिलाकर, नवजात शिशु निद्रा एवं जागृत अवस्था के बीच 6 भिन्न प्रकार की उद्दोलन स्थितियों में रहता है। प्रथम माह में ये दशाएँ बार- बार परिवर्तित होती रहती हैं। सामान्यतया शिशु 16 सर 18 घंटे तक सोता है । जन्म से 2 वर्ष की आयु निद्रा एवं जागरण की दृश्य परिवर्तित होती रहती है। 2 वर्ष की आयु के शिशु से भी 12-13 घंटे की नींद अपेक्षित है। दुसरे वर्ष में, शिशु दिन में अधिक घंटों तक जगता रहता है। उसकी निद्रा की स्थिति, माता – पिता के साथ जुड़ने लगती है (बर्क एवं बर्क, 1987)। यह परिवर्तन मस्तिष्क की परिपक्वता के कारण आता है परन्तु इस पर सामाजिक परिवेश का भी प्रभाव पड़ता है। शिशु की निद्रा की स्थिति पर सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ता है। अमेरिकन संस्कृति में माता-पिता को भोजन (दूध इत्यादि) कराने के बाद अलग एकांत कमरे में सुलाते हैं। ऐसा करने से बच्चे को अपनी स्नायूविक क्षमताओं की सीमा निर्धारण का प्रशिक्षण मिलता है। अन्य सांस्कृतिक में माता – पिता द्वारा ऐसा द्वारा ऐसा प्रयास नहीं होता है, जिससे 3 वर्ष की आयु तक पूर्व की भांति उसकी नींद के घंटे स्थिर रह जाते हैं । यद्यपि सभी शिशुओं में उद्दोलन स्थिति समान होती है तथापि माता - पिता एवं शिशु की अंत:क्रियात्मक दशाओं में भिन्नता के कारण, वैयक्तिक भिन्नता भी पायी जाती है। बच्चों के प्रति माता – पिता के धनात्मक भाव एवं सहज ढंग बहूत रोने वाले बच्चों को चुप कराने में, सहायक होता है। कई घंटे तक सोने वाले शिशु उद्दीपन के अवसरों से प्राय: वंचित हो जाते हैं जिससे संज्ञानात्मक विकास पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है (मोंस एवं अन्य, 1980 )।
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