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घुटनों के बल चलना शिशु के शारीरिक विकास के लिए बहुत जरूरी है। चलने से शिशु की हड्डियों में मजबूती आती है और उनमें लचीलापन आता है जो शिशु को पैरों पर चलने, दौड़ने, शरीर को मोड़ने और घुमाना सीखने के लिए जरूरी है। इसलिए शिशु जब घुटनों के बल चलने लगे तो उसे प्रोटीन और कैल्शियम युक्त आहार देना चाहिए ताकि उसकी हड्डियां मजबूत बनें और शरीर तेजी से विकास कर सके।
शिशु में प्राकृतिक नियमों की समझ के लिए भी उसका स्वयं चीजों को करके सीखना जरूरी है। शिशु जब घुटनों के बल चलना शुरू करता है, तो उसे गति और स्थिति के सामान्य नियमों की समझ आती है और वो बैलेन्स बनाना भी सीखता है। इसके अलावा आंखों और हाथों की गति का सामंजस्य भी शिशु घुटनों के बल चलने के दौरान सीखता है। चलने के दौरान शिशु की अपने आस-पास की चीजों को लेकर समझ बढ़ती है।
दृष्टि और आंखों के नियमों की समझ
शिशु जब घुटनों के बल चलना शुरू करता है तो उसकी दृष्टि क्षमता भी ज्यादा विकसित होती है। गोद में रहने के दौरान भी शिशु चीजों को देखता है लेकिन जब वो चलना शुरू करता है तो उसकी दूरी संबंधी समझ का विकास होता है। यही दूरी संबंधी समझ हमें बाद में ये तय करने में मदद करती है कि किस गति से हम क्या काम करें कि हमारे शरीर को नुकसान न पहुंचे और हमारा काम भी हो जाए या एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने में कितन समय लगेगा और वो हमसे कितनी दूर है।
दिमाग का विकास
वास्तव में देखा जाए तो शिशु के दिमाग में दुनियावी चीजों की समझ घुटनों के बल चलने के दौरान ही सबसे ज्यादा विकसित होती है। इसी समय शिशु का दायां और बांया मस्तिष्क आपस में सामंजस्य बनाना सीखता है क्योंकि इस समय शिशु एक साथ कई काम करता है जिसमें दिमाग के अलग-अलग हिस्सों का इस्तेमाल होता है। जैसे जब शिशु चलता है तो वो हाथ-पैर का इस्तेमाल करता है, आंखों का इस्तेमाल करता है, संवेगों का इस्तेमाल करता है और दूरी, तापमान, गहराई जैसी सैकड़ों चीजों की समझ उस समय वो इस्तेमाल करता है इसलिए ये दिमाग के हिस्सों के विकसित करने में मदद करता है।
आत्मविश्वास के लिए है जरूरी
घुटनों के बल चलने से शिशु का आत्मविश्वास बढ़ता है क्योंकि वो जिंदगी के कुछ जरूरी फैसले खुद से लेना शुरू करता है जैसे चलने के दौरान जमीन पर कोई कीड़ा दिख जाए, तो उससे बचना है या चलते जाना है, आगे अगर कोई अवरोध है तो किस तरह रास्ते को बदलना है आदि। ये बातें शिशु के मानसिक विकास में सहयोगी होने के साथ-साथ उसमें आत्मविश्वास भरती हैं। चलने के दौरान बच्चों को चोट लगती है, दर्द होता है यानि वो कई तरह के फिजिकल रिस्क लेते हैं। इस तरह के रिस्क यानि जोखिम से सफलता के बाद शिशु को आगे और बड़ा जोखिम लेने का साहस पैदा होता है और असफलता के बाद पुनः प्रयास करने की समझ विकसित होती है। इससे आत्मविश्वास बढ़ता है।
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