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श्री कृष्ण ने गीता में बताया है, मृत्यु पर विजय पाने का तरीका
योगेश्वर कृष्ण ने विषाद में फंसे अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए | जातस्य हि धु्रवो मृत्यु: | कह कर जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु को अवश्यंभावी बताया।
योगेश्वर कृष्ण ने विषाद में फंसे अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए | जातस्य हि धु्रवो मृत्यु: | कह कर जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु को अवश्यंभावी बताया। जन्म अर्थात न्यायकर्ता परमपिता परमेश्वर की न्याय व्यवस्था के अंतर्गत जीवात्मा के पूर्व जन्मों के कर्मों के फलों के अनुरूप उसे उपयोग के लिए एक साधन के रूप में मनुष्य का तन प्रदान करने के संयोग को ही जन्म कहते हैं। ठीक इसके विपरीत अपनी आयु पूर्ण कर लेने के उपरांत आत्मा का जीर्ण-शीर्ण मरणधर्मा शरीर के त्याग को ही मृत्यु कहते हैं।
वेद भगवान ने भी | मृत्युरीशे | कहकर स्पष्ट कर दिया कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है। मृत्यु पर विजय को समझने के लिए हमें पहले यह समझना होगा कि मृत्यु किसकी होती है, हम कौन हैं और क्या हम मरणधर्मा हैं? प्रथम प्रश्र मृत्यु किसकी होती है, का उत्तर भी योगेश्वर कृष्ण ने गीता के ज्ञान में देते हुए पांच मूल तत्वों अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी के संयोग और मिलन से बने इस मनुष्य शरीर व साधन को ही मरणधर्मा बताया। साथ ही साथ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: कह कर कृष्ण ने आत्मा को अजर-अमर, नित्य और अविनाशी बताया।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के पंद्रहवें मंत्र में वेद भगवान ने भी आत्मा की अजरता, अमरता और शरीर के मरणधर्मा होने को स्थापित किया है। यहां यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवात्मा मृत्यु से परे है और हमारा मनुष्य का तन अर्थात ईश्वर प्रदत्त साधन ही मरणधर्मा है। मृत्यु पर विजय वास्तव में मृत्यु के डर पर विजय है। एक डरा हुआ कायर व्यक्ति अपने जीवन में सैंकड़ों बार मरता है जबकि निडर साहसी मृत्यु के रहस्य को जानने वाला जीवन में केवल एक बार ही मृत्यु का आलिंगन करता है।
योगेश्वर कृष्ण ने भी गीता का ज्ञान देते हुए मृत्यु को परिधान परिवर्तन की संज्ञा दी है। जैसे हम प्रतिदिन नहाकर नए वस्त्र पहन कर प्रसन्न होते हैं वैसे ही मृत्यु के उपरांत इस जीवात्मा के पूर्व कर्मों के आधार पर मिलने वाले नए शरीर व साधन की प्राप्ति के लिए हमें शोक नहीं करना चाहिए अपितु नए साधन की प्राप्ति के लिए हमें प्रसन्न होना चाहिए। वेद भगवान ने भी अनेकों स्थानों पर मृत्यु का शोक न करने की या मृत्यु से ऊपर उठने की प्रेरणा दी है। जैसे अथर्ववेद में त्वां मृत्युर्दयतां मा प्र मेष्ठा: कह कर बताया कि मृत्यु तेरी रक्षा करे और तू समय से पूर्व न मरे। अथर्ववेद में ही उत तवां मृत्योरपीपरं कह कर वेद भगवान ने संदेश दिया हे जीवात्मा मैं मृत्यु से तुझको ऊपर उठाता हूं। मृत्यो मा पुरुषवधी: कह कर वेद ने संदेश दिया कि हे मृत्यु तू पुरुष को समय से पूर्व मत मार।
अब प्रश्र उठता है कि मनुष्य किस प्रकार मृत्यु के डर से विजय पाए और मृत्युंजय हो जाए। मृत्युंजय मंत्र की व्याख्या करते हुए जब हम खरबूजे की उपमा देते हैं और उसकी सुगंधि के चारों ओर फैल जाने की बात करते हैं तो हमें यही संदेश मिलता है कि मनुष्य के रूप में अपने इस सीमित जीवनकाल में ईश्वर प्रदत्त साधन मनुष्य के तन का उपयोग करते हुए ऐसे सुंदर यज्ञीय परोपकार के सद्कर्म करें जिससे हमारी सुगंधि, यश चारों ओर फैल जाए और फिर चाहे मृत्यु के उपरांत हमारा भौतिक शरीर रहे या न रहे परंतु हमारा यश रूपी शरीर सदा सर्वदा के लिए अमर हो जाए तथा हमारे चले जाने के बाद भी जनमानस में हमारे कर्मों, विचारों के माध्यम से हमें जीवित रख सके। वैसे भी शतपथ ब्राह्मण में अमरत्व की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिसको उस परम ज्योति के दर्शन हो जाते हैं अर्थात जो जीवात्मा उस सर्व अंतर्यामी परमात्मा को अपने ही अंदर आत्मसात कर लेता है वह अमर हो जाता है या जो मरणधर्मा अपनी समस्त कामनाओं को पूर्ण कर लेता है अर्थात यदि मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य अर्थात ईश्वर की अनुभूति करते हुए मोक्ष को प्राप्त हो जाता है तो वह अमर हो जाता है। हम कह सकते हैं मृत्यु के रहस्य को समझकर अपने अर्थात जीवात्मा के और ईश्वर के सच्चे स्वरूप को समझते हुए ईश्वर को अंतर्यामी रूप में अपने ही अंदर जान-मान कर सद्कर्म करते हुए जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। वह मृत्यु पर विजय पा लेता है।
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