नवजात शिशुओं में 3 सबसे आम बीमारियां कौन सी हैं?pregnancytips.in

Posted on Mon 17th Oct 2022 : 14:55

नवजात शिशुओं में पीलिया

नवजात शिशुओं में पीलिया की परिभाषा: पित्त के रोगन (बिलिरुबिन) द्वारा नवजात शिशु की चमड़ी तथा आंख के सफेद हिस्से (स्क्लेरी) पर पीले रंग के धब्बे। नवजात शिशुओं में एक हद तक पीलिया सामान्य बात है। यह लाल रक्त कोशिकाओं (जो रक्त में बिलिरुबिन छोड़ती हैं) के टूटने एवं नवजात के यकृत की अपरिपक्वता (जो बिलिरुबिन का प्रभावी तरीके से अपचय कर मूत्र के माध्यम से शरीर से बाहर फेंकने के लिए तैयार करने में असमर्थ होता है) के कारण होता है। नवजात शिशुओं में सामान्य पीलिया जन्म के दूसरे तथा पाँचवें दिन में उभरता है तथा समय के साथ समाप्त हो जाता है। नवजात शिशुओं में पीलिया निओनेटल हाइपरबिलिरुबिनेमिआ या नवजात का फिज़िओलॉजिक पीलिया भी कहा जाता है।

नवजात शिशु में पीलिया या निओनेटल जॉंन्डिस सामान्यतः हानि रहित होता है तथा आमतौर पर जन्म के दूसरे दिन के आसपास देखा जाता है। यह सामान्य प्रसूति में 8 दिनों तक जारी रह सकता है या समय पूर्व जन्म में लगभग 14 दिनों तक।

यह इसलिए होता है कि नवजात शिशु की यकृत बिलिरुबिन नामक रोगन को बाहर निकालने के लिए आवश्यक गति से कार्य नहीं कर पाता। बिलिरुबिन एक पीला रोगन है, जो लाल रक्त कोशिकाओं के टूटने से बनता है तथा गुर्दों एवं यकृत द्वारा साफ किया जाता है। चूंकि यकृत तुलनात्मक रूप से अपरिपक्व होता है, वह इस रोगन से छुटकारा प्राप्त करने में असमर्थ होता है, जो इकट्ठा हो जाता है। फलस्वरूप यह त्वचा को पीला कर देता है। इसलिए यदि आप जन्म के दो दिनों बाद पीली त्वचा देखें तो घबराएं नहीं।

लक्षण

पीली त्वचा
पीला श्वेतपटल एवं नाखून
शिशु सामान्य से अधिक समय तक सोता है।

उपचार

यदि पीलिया हल्का हो तो यह 10 दिनों में अपने आप ठीक हो जाता है। लेकिन, इसकी गम्भीरता को कम करने के लिए उसका उपचार करना आवश्यक है |
अधिक बार बच्चे को स्तनपान कराएं |
सूर्य की सीधी रोशनी में रखें। यदि हो सके तो बच्चे का पलंग या झूला खिड़की पर पतला पर्दा डालकर उसके पास रखें |
उन्हें बिलि प्रकाश (एक प्रकाश उपचार युक्ति) में रखें यानि बिलिरुबिन को विभाजित करने के लिए उन्हें उच्च स्तर के रंगीन प्रकाश में रखें। सामान्यतः इस उद्देश्य के लिए नीले प्रकाश का उपयोग किया जाता है। बिलिरुबिन को विभाजित करने में हरा प्रकाश अधिक प्रभावी होता है। लेकिन सामान्यतः इसका उपयोग नहीं किया जाता क्योंकि शिशु बीमार दिखने लगता है |
गम्भीर अवस्थाओं में रक्त दिया जाता है |
हरे रोगन से मुक्ति के लिए यकृत को उत्तेजित करने हेतु विशिष्ट दवाओं का उपयोग करें।

ध्यान दें: यदि पीलिया 2 हफ्तों बाद भी जारी रहता है; तो नवजात शिशु का मेटाबॉलिक स्क्रीन गेलेक्टोसेमिया तथा कंजेनिटल हाइपोथाइरॉइडिज़्म के लिए जांच की जानी चाहिए। नवजात शिशु के वज़न के रुझान के साथ पारिवारिक इतिहास भी देखा जाना चाहिए। मल के रंग का आकलन भी किया जाना चाहिए।

कुछ रोचक तथ्य

एक सर्वेक्षण के मुताबिक पीलिया नवजात लड़कियों की तुलना में नवजात लड़कों को अधिक होता है। लेकिन यह बिलिरुबिन के उत्पादन की दर से सम्बद्ध नहीं है, जो कि नवजात लड़कियों के समान ही होता है |
हाल ही में फ्रांसीसी शोधकर्ताओं ने कहा है कि सूर्य की तेज़ रोशनी में रखने से त्वचा पर तिल हो जाएंगे। चिकित्सकीय शब्दावली में इन तिलों को मेलेनोसाइटिक नेवि कहा जाता है। अत: शोधकर्ता पालकों को सलाह देते हैं कि तेज़ रोशनी के उपचार के समय पर्याप्त सुरक्षा दें |
कुछ वर्ष पहले जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय ने सिद्ध किया था कि बिलिरुबिन रोगन, जो त्वचा को पीला कर देता है, एक शक्तिशाली ऑक्सिडेंट है। यह बच्चों की कोशिकाओं को नुकसान से बचाता है। इसलिए पीलिया कोशिकाओं के नुकसान के विरुद्ध एक रोध की तरह कार्य कर सकता है। लेकिन पीलिया के लिए उचित देखभाल की जानी चाहिए |
जन्म के बाद कुछ दिनों में बच्चे को पानी पिलाना नवजात में पीलिया की तीव्रता को बढ़ा देता है। इसलिए पानी देने के बजाय बच्चे को अधिक स्तनपान कराएं।
कम वजन

स्वस्थ और पुष्ट माताओं के गर्भ से पैदा होनेवाले शिशु का सामान्य वजन 3.5 किलोग्राम होता है। लेकिन भारतीय शिशुओं का औसत वजन 2.7 से 2.9 किलोग्राम तक होता है। शिशु के जन्म के एक घंटे के भीतर उसका वजन लेना बहुत जरूरी है। इससे शिशु के विकास और उसके जीवित रहने की संभावना की जानकारी मिलती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिशु के कम वजन को 2.5 किलोग्राम से कम तय किया गया है। शिशु का जन्म गर्भ के पूरे समय या समय से पहले हो सकता है। कम वजन के शिशुओं के दो प्रकार होते हैं-

समय से पहले जन्मा शिशु - वैसे शिशु, जो समय से पहले, जैसे गर्भधारण के 37वें सप्ताह में ही पैदा हो जाते हैं। समुचित देखभाल से जन्म से दो-तीन साल के भीतर उनका आंतरिक विकास, जैसे वजन, लंबाई या अन्य विकास, सामान्य हो सकता है।
असामान्य बच्चे (एसएफडी) - ऐसे शिशु समय पर या समय से पहले पैदा हो सकते हैं। उनका वजन सामान्य से बहुत कम होता है। यह भ्रूणावस्था में हुई गड़बड़ी के कारण होता है।

जन्म के समय कम वजन : समस्या की रोकथाम के उपाय

जन्मकालिक कम वजन के शिशुओं की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपाय किये गये हैं :

अच्छी प्रसवोत्तर देखभाल
सभी गर्भवती महिलाओं का निबंधन और खतरे में पड़ी महिलाओं की पहचान
खान-पान में सुधार, संतुलित भोजन लेने के लिए प्रोत्साहित करना, पूरक पोषण की व्यवस्था, लोहे की फोलिक एसिड गोलियों का वितरण
मधुमेह, उच्च रक्तचाप जैसी गैर-संक्रामक बीमारियों की पहचान और चिकित्सा
स्व-औषधि को हतोत्साहित करना
छोटे परिवार के लिए परिवार नियोजन के उपाय अपनाने को प्रोत्साहन, शिशुओं के जन्म में समुचित अंतर और गर्भधारण के लिए समय की पहचान को प्रोत्साहन।

कुपोषण

कुपोषण, कम या असंतुलित भोजन के कारण होता है। प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण सबसे गंभीर कुपोषण समस्या है।

पांच-छह महीने तक मांगने पर केवल स्तनपान
पांच-छह महीने तक स्तनपान के बाद पोषण से भरपूर खाद्य सामग्री, जैसे गाय का दूध, फल, गीला चावल, अन्य अनाज और दालों से पूरक
पूर्ण भोजन, जिसमें अनाज, दालें, सब्जियां, दूध और दूध के उत्पाद की व्यवस्था
बालिका शिशु के लिए समुचित और संपूर्ण आहार सुनिश्चित करना
गर्भधारण से पहले समुचित और पोषणयुक्त आहार
पोषण में किसी प्रकार की कमी की पहचान और उसका उचित उपचार

संक्रामक बीमारियां

बच्चों में कई प्रकार की संक्रामक बीमारियां आम हैं और इसके कारण उनकी मृत्यु दर काफी बढ़ जाती है। इनमें डायरिया, सांस लेने संबंधी गंभीर गड़बड़ी (एआरआइ), खसरा, पेट्रूसिस, डिप्थेरिया, पोलियो, टेटनस और यक्ष्मा।

दुर्घटनाएं और विषपान

घरों, सड़कों, स्कूलों आदि में व्याप्त खतरों के कारण बच्चों में दुर्घटनाएं और विषपान की घटनाएं काफी आम हैं। इनके कारण बच्चे जल जाते हैं, डूब जाते हैं, जहर खा लेते हैं, गिर जाते हैं, बिजली का झटका खाते हैं या सड़क दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं।

बाल स्वास्थ्य

बाल स्वास्थ्य का अर्थ गर्भधारण से जन्म और उसके बाद पांच साल की उम्र तक देखभाल है। पांच साल की उम्र के बाद बच्चों के स्वास्थ्य पर स्कूल स्वास्थ्य प्रोग्रामर टीम नजर रखती है। मातृ शिशु स्वास्थ्य के स्वास्थ्य कार्यकर्ता स्कूल स्वास्थ्य टीम के सदस्य हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं।

बच्चे का स्वास्थ्य वास्तव में बालिका शिशु के जन्म के साथ शुरू होता है, जो बच्चों की भावी मां है। इसमें भ्रूणावस्था में ही बालिका शिशु के स्वास्थ्य के प्रति सौतेला रवैया और प्रसव पूर्व बरती जानेवाली सावधानियों के दौरान नजर आता है। स्वास्थ्य देखभाल में जन्म से 28 दिन तक की अवधि शामिल की गयी है। शिशुओं की देखभाल एक से 12 महीने तक की जाती है। अबोध बच्चों में एक से दो साल तक के बच्चे आते हैं, जबकि स्कूल पूर्व में दो साल से अधिक के बच्चे शामिल किये गये हैं। बाल स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

सभी बच्चों को समुचित देखभाल और पोषण मिले |
उनके विकास और वृद्धि पर सतत निगरानी रखी जाये और किसी प्रकार की कमी आने पर तत्काल उसका इलाज किया जाये |
बीमारी का तत्काल पता लगाया जाये और हालत बिगड़ने से बचाने के लिए उसकी तत्काल चिकित्सा की जाये |
प्रशिक्षित व्यक्ति उनकी देखभाल करें |
मां और परिवार के अन्य लोगों को उनके बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल करने तथा उसे सुधारने के बारे में शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाये |

वृद्धि और विकास की निगरानी
बच्चों की वृद्धि और विकास पर सतत निगरानी रखना जरूरी है। यह बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति का संकेत करता है। इससे सामान्य वृद्धि व विकास में किसी प्रकार की रुकावट का तत्काल पता चलता है और उस पर परिवार या स्वास्थ्य केंद्र स्तर पर समय रहते ध्यान दिया जा सकता है।

बच्चे की वृद्धि
बच्चे की वृद्धि का मतलब उसके शारीरिक विकास से है, जिसे शरीर के वजन, लंबाई, सिर, बांह और छाती के व्यास से नापा जाता है। इन नापों की संदर्भ नाप से तुलना की जाती है और पता लगाया जा सकता है कि बच्चे की वृद्धि सामान्य है या नहीं (इसमें ऊपर या नीचे दो का अंतर स्वीकार्य है)।

सामान्यतौर पर स्वस्थ और सुपोषित शिशु अपने जीवन के पहले साल के दौरान सबसे तेज गति से बढ़ता है।

वजन
लगभग सभी शिशुओं का वजन जन्म के तीन-चार दिन के दौरान कम होता है। फिर वे सात से 10 दिन के दौरान वजन दोबारा हासिल करने लगते हैं। पहले तीन महीने के दौरान उनका वजन 25 से 30 ग्राम प्रतिदिन की दर से बढ़ता है और बाद में इसमें कमी आ जाती है। सामान्यतौर पर शिशु पांच महीने में अपना वजन दोगुना और एक साल में तिगुना कर लेते हैं। जन्म के समय कम वजन वाले शिशु इसके अपवाद हैं।
जन्म के समय कम वजन वाले शिशु पहले ही अपना वजन दोगुना और एक साल में चार गुना कर लेते हैं। एक साल के बाद यह गति उतनी तेज नहीं रहती है। अनेक शिशुओं का वजन चक्र पहले पांच से छह महीने में काफी अच्छा रहता है, जब उनका वजन जन्म के समय के मुकाबले दोगुना हो जाता है। लेकिन इसके बाद वजन वृद्धि का चक्र नीचे गिरने लगता है या अनियमित हो जाता है। यह इसलिए होता है, क्योंकि स्तनपान ही शिशु के लिए पर्याप्त नहीं होता। स्तनपान की कमी को पहले बताये गये खाद्य सामग्री से पूरा किया जाना चाहिए।
बच्चों का वजन उनकी लंबाई पर भी निर्भर करता है। यह जांचना बहुत आवश्यक है कि बच्चे का वजन सामान्य है या नहीं। बच्चे का वजन उसकी लंबाई के अनुरूप कम या अधिक हो सकता है। लंबाई के कारण वजन कम होना कुपोषण का संकेत करता है।

लंबाई
बच्चे की लंबाई उसकी वृद्धि का एक और पैमाना है। नवजात शिशु की लंबाई 50 सेंटीमीटर होती है। पहले साल इसमें 25 सेंटीमीटर की वृद्धि होती है। दूसरे साल 12 सेंटीमीटर और तीसरे, चौथे तथा पांचवें साल इसमें क्रमशः नौ, सात और छह सेंटीमीटर की वृद्धि होती है।

सिर और छाती का व्यास
जन्म के समय सिर का व्यास करीब 34 सेंटीमीटर होता है। छह से नौ महीने के बाद छाती का व्यास बढ़ जाता है और यह सिर के व्यास से अधिक हो जाता है। यदि बच्चा कुपोषित है, तो छाती का व्यास तीन-चार साल तक सिर के व्यास को पार नहीं करता है।

मध्य बांह का व्यास
बांह के ऊपरी हिस्से के बीच को उस समय नापा जाता है, जब वह शरीर के दोनों तरफ झूल रहा होता है। फीते को मांसपेशियों को दबाये बिना उसके चारों तरफ लपेटा जाता है और फिर उसका नाप लिया जाता है। जन्म से लेकर एक साल तक इसमें तेजी से वृद्धि होती है। यह वृद्धि 11 से 12 सेंटीमीटर तक की होती है। अच्छी तरह से पोषित बच्चों की बांह का व्यास पांच साल तक 16 से 17 सेंटीमीटर पर स्थिर रहता है। इस अवधि में जन्म के समय की चर्बी के स्थान पर मांसपेशियां बनती हैं। सामान्य से 80 प्रतिशत कम, यानी करीब 12.8 सेंटीमीटर का नाप भयंकर कुपोषण का संकेत करता है।

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